रविवार, 27 जुलाई 2014

गुरुदत्त: ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्‍या है...


गुरुदत्त: वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे 
गुरुदत्त: अतृप्त कलाकार 
(हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता एवं निर्देशक) 

जन्म: 9 जुलाई, 1925 बंगलौर, निधन: 10 अक्तूबर, 1964 मुंबई 

1957 में बनी फ़िल्म प्यासा का यह अकेला गीत जो गुरुदत्त के ऊपर ही फिल्माया गया था उन्हें हमेशा-हमेशा के लिये अमर कर गया:


ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है, वफा कुछ नहीं,दोस्ती कुछ नहीं है;
जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? 

जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया;
तुम्हारी है तुम ही सँभालो ये दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? 

‘गुरुदत्त ने अपने 39 वर्ष के अल्प जीवन में छह फिल्मों की कहानियां लिखीं, तेरह में अभिनय किया, आठ फिल्मों का निर्देशन किया और सात फिल्मों के निर्माता रहे.’


ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्‍या है... 


‘‘अक्‍टूबर का महीना और मुंबई का सुहाना मौसम जिसमें देव आनंद और गीता दत्‍त के साथ गुरुदत्‍त ने; न जाने कितनी रातें मरीन ड्राइव और वर्ली के समुद्र तट पर भटकते हुए गुजारी थीं लेकिन ये रात उन रातों से थोड़ी अलग थी. उस रात पैडर रोड स्थित किराए के एक फ्लैट में गुरुदत्‍त बिलकुल अकेले थे. जिंदगी से आजिज आ चुका एक अकेला, अवसादग्रस्‍त, अतृप्‍त कलाकार. उनके बेहद करीबी भी नहीं जानते थे कि ये रात गुरुदत्‍त के जीवन की आखिरी रात होगी. आधी रात के करीब उन्‍होंने शराब के नशे में ढेर सारी नींद की गोलियाँ निगल लीं. रात बीती, सुबह हुई लेकिन सदी के एक महान कलाकार की आत्‍मा का सूरज अस्‍त हो चुका था.’’

भारतीय सिनेमा में गुरुदत्त को याद करने से पहले हमें गुरुदत्त को जानना होगा. 
गुरुदत्त को जानना एक अदम्य, अतृप्त प्यास से पूरा भर जाना है; अवचेतन मन बहुत आश्चर्यजनक है. वह कभी आपको खारे सागर की तलहटी में पेवस्त कर देता है तो कभी ज़ेहन को घुप्प अँधेरा समेटे घने जंगल में भटकने को छोड़ देता है. मन नास्टाल्जिया की परतों में गहरा गोता लगा कर कौन सी तस्वीर सामने खींच ले आएगा हम नहीं जानते. क्योंकि कला व्यक्तिपरक होती है, कुछ एकदम साधारण सी लगती है और समझ नहीं आता है कि दुनिया क्यूँ पागल है इसके पीछे. कला हो, फिल्म हों या किताबे, हमें वही पसंद आती है जिसमें कहीं न कहीं कुछ ऐसा मिल जाता है जो हमारे जीवन से जुड़ा होता है. कहीं न कहीं एक कांच का टूटा हुआ टुकड़ा; टूटा ही सही जिसमें हम अपना अक्स देख लेते हैं. गुरुदत्त को जानते हुए कुछ ऐसे ही अहसास दिल से दोचार होते हैं.

9 जुलाई, 1925 को मैसूर में एक मामूली हेडमास्‍टर और एक साधारण गृहिणी की संतान के रूप में वसंत शिवशंकर पादुकोण का जन्‍म हुआ था. माँ की उम्र तब मुश्किल से 13 साल की रही होगी. शुरू से ही आर्थिक परेशानियाँ और भावनात्‍मक एकाकीपन उसके हमराही रहे. माता-पिता के तनावपूर्ण संबंध, घरेलू दिक्‍कतें और सात वर्षीय छोटे भाई की असमय मौत ने उनके मानस पटल को जर्जर और उदास कर दिया था. पहले-पहल जिंदगी कुछ इस शक्‍ल में उसके सामने आई कि उन्होंने दुनिया की रंगीनियत को बेरहमी से ठुकराया दिया. जैसे लगता हो कि वो खुद अपने ही फिल्म ‘प्यासा का गीत ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है..’ गुनगुनाने से ज्यादा निभाने पर अड़े हों.’

बचपन का वो उदास-गुमसुम बच्‍चा एक दिन ‘प्‍यासा’ के विजय और ‘कागज के फूल’ के असफल निर्देशक ‘सिन्हा साहब’ के रूप में हमारे सामने आता है और हम आश्‍चर्यचकित से देखते रह जाते हैं. साहित्यिकता और रचनात्‍मकता के बीज बहुत बचपन से ही उनके भीतर मौजूद थे. बत्‍ती गुल होने पर गुरुदत्‍त बचपन में दीये की टिमटिमाती लौ के सामने अपनी उँगलियों से दीवार पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाते थे. उन दिनों यह उनके छोटे भाइयों आत्‍माराम और देवीदास और बहन ललिता के लिए सबसे मजेदार खेल हुआ करता था. गुरुदत्‍त एक मेधावी विद्यार्थी थे, लेकिन अभावों के चलते कभी कॉलेज न जा सके. उदयशंकर की नृत्‍य मंडली में उन्‍हें बड़ा रस आता था. 1941 में मात्र 16 वर्ष की आयु में गुरुदत्‍त को उदयशंकर के अल्‍मोड़ा स्थिति इंडिया डांस सेंटर की स्‍कॉलरशिप मिली. पाँच वर्ष के इस वजीफे में प्रति वर्ष 75 रु. मिलने वाले थे, जो उस दौर के हिसाब से बड़ी बात थी लेकिन यह शिक्षा अधूरी रह गई. पूरी दुनिया उस समय गहरी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी. भारत में आजादी की लड़ाई जोरों पर थी और वैश्विक पटल पर द्वितीय विश्‍व युद्ध की गहमागहमी का ज्वलंत माहौल था. उदयशंकर को मजबूरन अपना स्‍कूल बंद करना पड़ा और गुरुदत्‍त घरवालों को ये बताकर कि कलकत्‍ते में उन्‍हें नौकरी मिल गई है, 1944 में कलकत्‍ता चले गये.

लेकिन बेचैन चित्‍त को चैन कहाँ. उन्हें एक टेलीफोन ऑपरेटर नहीं, ‘प्‍यासा’ और ‘कागज के फूल’ का निर्देशक होना था. उसी वर्ष प्रभात कंपनी में नौकरी करने वे पूना चले आए और यहीं उनकी मुलाकात देवानंद और रहमान से हुई. गुरुदत्‍त ने फिल्‍म ‘हम एक हैं’ से बतौर कोरियोग्राफर अपने फिल्‍मी सफर की शुरुआत की. फिर देवानंद की फिल्‍म ‘बाजी’ से निर्देशक की कुर्सी सँभाली. तब उनकी उम्र मात्र 26 वर्ष थी. उसके बाद ‘आर-पार’, ‘सीआईडी’, ‘मि. एंड मिसेज 55’ जैसी फिल्‍में गुरुदत्‍त के फिल्‍मी सफर के तमाम पड़ाव थे, लेकिन वह महान कृति अब भी समय के गर्भ में छिपी थी, जिसे आने वाले समय में एक संजीदा इन्सान; हिंदी सिनेमा के इतिहासपथ पर मील के पत्थरों की तरह गाड़ देने वाला था.

19 फरवरी, 1957 को ‘प्‍यासा’ रिलीज हुई. यकीन करना मुश्किल था कि ‘आर-पार’ और ‘मि. एंड मिसेज 55’ के टपोरी नायक के भीतर ऐसा बेचैन कलाकार छिपा बैठा है. यह फिल्‍म आज भी बेचैन करती है और हरपल मरते हुए समय से जिंदा संवाद करती है. ‘प्‍यासा’ के बिंबों में जैसे गुरुदत्‍त उस दौर और उसमें इंसानी जिंदगी के तकलीफदेह यथार्थ को रच रहे थे, वैसा उसके बाद फिर बमुश्किल ही संभव हो पाया. ‘प्‍यासा’ के दो वर्ष बाद ‘कागज के फूल’ आई जो बहुत हद तक गुरुदत्‍त की असल जिंदगी थी. ‘कागज के फूल’ एक असफल फिल्‍म साबित हुई. दर्शकों ने इसे सिरे से नकार दिया और गुरुदत्‍त फिर कभी निर्देशक की उस कुर्सी पर नहीं बैठे, जिस पर बैठे-बैठे फिल्‍म ‘कागज के फूल’ के नायक सुरेश सिन्‍हा की मौत हो जाती है.

गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा को टाइम मैगज़ीन ने विश्व की 100 सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में स्थान दिया. 2002 में साइट और साउंड के क्रिटिक्स और डायरेक्टर्स के पोल में गुरुदत्त की दो फ़िल्मों ‘प्यासा’ और ‘कागज़ के फूल’ को सर्वकालिक 160 महानतम फिल्मों में चुना गया. ‘कागज के फूल’ एक महान फिल्‍म थी, कुछ मायनों में ‘प्‍यासा’ से भी आगे की कृति. गुरुदत्‍त का निर्देशन, अबरार अलवी के संवाद, वी.के. मूर्ति की सिनेमेटोग्राफी और एस. डी. बर्मन का संगीत. दिग्‍गजों का ऐसा संयोजन गुरुदत्‍त के ही बूते की बात थी. इस फिल्‍म की असफलता बहुत चौंकाती नहीं है. हिंदुस्‍तान जैसे देश में शायद यही मुमकिन था. ‘प्‍यासा’ को भारत से ज्‍यादा सफलता विदेशों में मिली. फ्राँस की जनता ने जिस पागलपन के साथ ‘प्‍यासा’ का स्‍वागत किया, वह खुद गुरुदत्‍त के लिए भी उम्‍मीद से परे था. गुरुदत्‍त की सिनेमाई समझ और उनके भीतर का कलाकार बेशक महान थे, लेकिन हमारे देश में एक कम उम्र युवक की दुखद मौत उसकी प्रसिद्धि का कारण ज्‍यादा बनी, न कि उसकी अपराजेय प्रतिभा.

“गुरुदत्‍त के लिए जीवन बहुत आसान नहीं रहा. उनके भीतर एक अतृप्‍त कलाकार की छटपटाहट थी तो बाहर अवसादपूर्ण दांपत्‍य और प्रेम की गहन पीड़ा और इर्दगिर्द तोड़ देने वाला अकेलापन. गुरुदत्त का अंतिम समय बेहद कठिन त्रिकोण और संवादहीनता का दलदल साबित हुआ. एक तरफ वहीदा रहमान की दोस्ती और दूसरी तरफ अर्धांगिनी गीता जी से दूरी ने उन्हें लगातार खुद में ही समाते जाने को मजबूर कर दिया. सारे मुम्बईया तिलिस्म के बावजूद वे अपने बच्चों से बेहद प्यार करते थे और अंतिम रात से पहले उन्होंने गीता दत्त जी से कई बार बच्चों को अपने पास भेजने की गुजारिश की थी. अकेलेपन के ऐसे ही क्षणों में उन्‍होंने अपना जीवन खत्‍म कर लिया, संसार छूट गया और यहाँ के सारे गम भी. लेकिन उन्‍हें जानने वाले ये कभी समझ ही न सके कि अकेलेपन और अवसाद का वह कैसा सघनतम क्षण रहा होगा जब गुरुदत जैसे संवेदनशील कलाकार को दुनिया से मुंह मोड़ लेना ही एक मात्र रास्ता सुझा.”

एक व्‍यावहारिक और चालबाज दुनिया उन्‍हें कभी नहीं समझ सकी. ‘कागज के फूल’ की असफलता को गुरुदत्‍त स्‍वीकार नहीं कर सके. उसके बाद भी उन्‍होंने दो फिल्‍में बनाईं, लेकिन निर्देशन का बीड़ा कभी नहीं उठाया. ‘कागज के फूल’ दर्शकों की संवेदना के दायरे में घुसी, लेकिन पहले नहीं, बल्कि गुरुदत्‍त की मौत के बाद. जीते जी जिसे कोई पहचान नहीं पाया और उनकी मौत ने उन्हें नायक बना दिया.
‘प्‍यासा’ का विजय यूँ ही नहीं इस दुनिया को ठुकराता है उसकी संवेदना इस दुनिया की समझ से परे है. उसे कोई समझता है तो सिर्फ गुलाबो (प्‍यासा की वेश्‍या) और शांति (कागज के फूल की अनाथ लड़की).

गुरुदत्त: निर्देशक-निर्माता 

जिन्दगी का सफ़र...



गुरुदत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को बंगलौर में शिवशंकर राव पादुकोणे व वसन्ती पादुकोणे के यहाँ हुआ था. उनके माता पिता कोंकण के चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण थे. उनके पिता शुरुआत के दिनों में शिक्षक थे जो बाद में एक बैंक में काम करने लगे. माँ एक साधारण गृहिणीं थी जो बाद में किसी स्कूल में अध्यापिका हो गयीं. वसन्ती घर पर प्राइवेट ट्यूशन के अलावा बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद भी करती थीं. गुरुदत्त ने अपने बचपन के शुरुआती दिन कलकत्ता में गुजारे. उन पर बंगाली संस्कृति की इतनी गहरी छाप पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे से बदलकर गुरुदत्त रख लिया.

गुरुदत्त की दादी नित्य शाम को दिया जलाकर आरती करतीं और गुरुदत्त दिये की रौशनी में दीवार पर अपनी उँगलियों की विभिन्न मुद्राओं से तरह तरह के चित्र बनाते रहते. यहीं से उसके मन में कला के प्रति आत्मीयता जागृत हुई. कला परवान चढ़ी और उसे सारस्वत ब्राह्मणों के एक सामाजिक कार्यक्रम में पाँच रुपये का नकद पारितोषक प्राप्त हुआ.जब गुरुदत्त 16 वर्ष के थे उन्होंने 1941 में पूरे पाँच साल के लिये 75 रुपये वार्षिक छात्रवृत्ति पर अल्मोड़ा जाकर नृत्य, नाटक व संगीत की तालीम लेनी शुरू की. 1944 में जब द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण उदय शंकर इण्डिया कल्चर सेण्टर बन्द हो गया गुरुदत्त वापस अपने घर लौट आये. आर्थिक कठिनाइयों के कारण वे स्कूल जाकर अध्ययन तो न कर सके परन्तु पं. रविशंकर के अग्रज उदयशंकर की संगत में रहकर कला व संगीत के कई गुण अवश्य सीख लिये. यही गुण आगे चलकर कलात्मक फ़िल्मों के निर्माण में उनके लिये सहायक सिद्ध हुए.

गुरुदत्त ने पहले कुछ समय कलकत्ता जाकर लीवर ब्रदर्स फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी की लेकिन जल्द ही वे वहाँ से इस्तीफा देकर 1944 में अपने माता पिता के पास मुंबई लौट आये. उनके चाचा ने उन्हें प्रभात फिल्म कम्पनी पूना तीन साल के अनुबन्ध के तहत फिल्म में काम करने भेज दिया. वहीं सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता वी० शान्ताराम ने कला मन्दिर के नाम से अपना स्टूडियो खोल रखा था. यहीं रहते हुए गुरुदत्त की मुलाकात फिल्म अभिनेता रहमान और देव आनन्द से हुई जो आगे जाकर उनके बहुत अच्छे मित्र बने.

देखा जाये तो उनके संघर्ष का यही वह समय था जब उन्होंने लगभग आत्मकथात्मक शैली में प्यासा फिल्म की पटकथा लिखी. मूल रूप से यह पटकथा ‘कश्मकश’ के नाम से लिखी गयी थी जिसका हिन्दी में अर्थ ‘संघर्ष’ होता है. बाद में इसी पटकथा को उन्होंने ‘प्यासा’ के नाम में बदल दिया. यह पटकथा उन्होंने माटुंगा में अपने घर पर रहते हुए लिखी थी.

उन्हें पूना में सबसे पहले 1944 में ‘चाँद’ नामक फिल्म में श्रीकृष्ण की एक छोटी सी भूमिका मिली. 1945 में अभिनय के साथ ही फिल्म निर्देशक विश्राम बेडेकर के सहायक का काम भी देखते थे. 1946 में उन्होंने एक अन्य सहायक निर्देशक पी० एल० संतोषी की फिल्म ‘हम एक हैं’ के लिये नृत्य निर्देशन का काम किया. यह अनुबन्ध 1947 में खत्म हो गया. उसके बाद उनकी माँ ने बाबूराव पै, जो प्रभात फिल्म कम्पनी व स्टूडियो के सी०ई०ओ० थे, के साथ एक स्वतन्त्र सहायक के रूप में फिर से नौकरी दिलवा दी. वह नौकरी भी छूट गयी तो लगभग दस महीने तक गुरुदत्त बेरोजगारी की हालत में माटुंगा बम्बई में अपने परिवार के साथ रहते रहे. इसी दौरान, उन्होंने अंग्रेजी में लिखने की क्षमता विकसित की और इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इण्डिया नामक एक स्थानीय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के लिये लघु कथाएँ लिखने लगे.

गुरुदत्त को प्रभात फिल्म कम्पनी ने बतौर एक कोरियोग्राफर के रूप में काम पर रखा था लेकिन उन पर जल्द ही एक अभिनेता के रूप में काम करने का दवाव डाला गया. केवल यही नहीं, एक सहायक निर्देशक के रूप में भी उनसे काम लिया गया. प्रभात में काम करते हुए उन्होंने देव आनन्द और रहमान से उनके सम्बन्ध बने. उन दोनों की दोस्ती ने गुरुदत्त को फिल्मी दुनिया में अपनी जगह बनाने में काफी मदद की. प्रभात के 1947 में विफल हो जाने के बाद गुरुदत्त बम्बई आ गये. वहाँ उन्होंने अपने समय के दो अग्रणी निर्देशकों अमिय चक्रवर्ती की फिल्म ‘गर्ल्स स्कूल’ में और ज्ञान मुखर्जी के साथ बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘संग्राम’ में काम किया. बम्बई में ही उन्हें देव आनन्द की पहली फिल्म के लिये निर्देशक के रूप में काम करने की पेशकश की गयी. देव आनन्द ने उन्हें अपनी नई कम्पनी नवकेतन में एक निर्देशक के रूप में अवसर दिया था किन्तु दुर्भाग्य से यह फिल्म फ्लॉप हो गयी. इस प्रकार गुरुदत्त द्वारा निर्देशित पहली फिल्म थी नवकेतन के बैनर तले बनी ‘बाज़ी’ जो 1951 में प्रदर्शित हुई.



गुरुदत्त और परिवार 

 मुझको मेरे बाद जमाना ढूंढेगा...


कोई बड़ा सर्जक जब युवावस्था में ही आत्महत्या कर लेता है तो उसके साथ कई रूमानी कहानियाँ जुड़ जाती हैं और उसके प्रशंसकों का एक बड़ा संप्रदाय सा बन जाता है. लेकिन यह रूमानियत की आस्था हवाई नहीं होती. चालीस बरस पहले सिर्फ 39 बरस की उम्र में ख़ुदकुशी कर लेने वाले गुरुदत्त की वैसी मौत अब सिर्फ़ एक दर्दनाक ब्यौरा बनकर रह गई है, लेकिन उनकी 'प्यासा', 'काग़ज़ के फूल' और 'साहब, बीबी और ग़ुलाम' सरीखी फ़िल्में भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर हैं. बेशक़ ये तीनों बड़ी फिल्में हैं लेकिन गुरुदत्त की प्रारंभिक फिल्मों को भुला देना उनके योगदान की जमीन को भुला देने के बराबर होगा.

एक साफ़-सुथरा, लोकप्रिय और मनोरंजक सिनेमा 1950 के दशक में उभर रहा था, उसमें गुरुदत्त का केन्द्रीय योगदान रहा है. यूँ तो बंगलौर में जन्मे गुरुदत्त की मातृभाषा हिन्दी या उर्दू नहीं थी लेकिन उनकी शिक्षा देश की तत्कालीन सांस्कृतिक राजधानी कोलकाता में हुई, वहीं उनमें कलाओं में रूचि जागी. नृत्य सीखने की इच्छा ने उन्हें नृत्य-विश्वगुरु उदय शंकर से मिलवाया जो उस वक्त भारत की पहली नृत्य-फ़िल्म 'कल्पना' की योजना बना रहे थे. 

इस संयोग से गुरुदत्त का रुझान सिनेमा की ओर गया और मुंबई में बन रही 1945 की फ़िल्म 'बरखारानी' में उन्होंने नृत्य निर्देशन किया साथ ही नायिका के छोटे भाई की एक मामूली भूमिका भी की. देव आनंद की पहली फिल्म 'हम एक हैं' (1946) में भी वे नृत्य-निर्देशक थे. अमित चक्रवर्ती की फिल्म 'गर्ल्स स्कूल' (1949) और ज्ञान मुखर्जी की अपराध फिल्म 'संग्राम' में वे सहायक निर्देशक रहे. मित्र देव आनंद ने अपनी संस्था नवकेतन की दूसरी फ़िल्म 'बाज़ी' (1951) का सम्पूर्ण निर्देशन 26 वर्षीय गुरुदत्त को सौंप दिया. 


इस फ़िल्म की हिरोइन थी सुपरिचित पार्श्वगायिका गीता रॉय, जो बाद में गुरुदत्त की ‘जिन्दगी’ बन गयीं. शादी के बाद वह गीता दत्त हो गईं. उसकी कामयाबी से गुरुदत्त, देव आनंद, संगीतकार सचिन देव बर्मन और गीतकार साहिर लुधियानवी को स्थाई अखिल भारतीय ख्याति मिली. अगली फ़िल्म 'जाल' में इस टीम के साथ गुरुदत्त ने जॉनी वॉकर को भी जोड़ लिया जो आगे चल कर एक साफ-सुथरे हास्य अभिनेता के रूप में स्वीकृत हुए. 1953 की अपने नायकत्व वाली फ़िल्म 'बाज़' इतनी सफल नहीं हुई लेकिन उसके बाद 'आर-पार', 'सीआईडी' और 'मिस्टर एंड मिसेज 55' ज़बरदस्त हिट रही. गुरुदत्त को अब बच्चा-बच्चा जानता था, फ़िल्म-उद्योग में निर्माता-निर्देशक-अभिनेता के रूप में वे स्थापित हो चुके थे. ये वो दशक था जब मोतीलाल, अशोर कुमार, बलराज साहनी, दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद सरीखी प्रतिभाएं अपने उत्कर्ष पर थीं.

1945-55 के दस वर्ष गुरुदत्त की उस बहुमुखी तैयारी के वर्ष थे जिसका अंतिम लक्ष्य कुछ बड़ी फिल्में बनाना था. जब दिलीप कुमार वादा करके भी सेट पर नहीं आए तो गुरुदत्त ने स्वयं 'प्यासा' के भावुक, आदर्शवादी, पूंजी-विरोधी कवि की भूमिका संभाल ली. 'प्यासा' का नायक हर तरह के अन्याय, पाखंड और शोषण के विरुद्ध है. उसे किन्हीं जीवन-मूल्यों की प्यास है. एक अवसरवादी, बुर्जुआ प्रेमिका को छोड़कर वह एक वेश्या को चाहने लगता है. अपने धनपिशाच भाइयों से उसे नफ़रत होती है जो उसकी कथित मौत का फ़ायदा उठाना चाहते हैं. निर्देशक गुरुदत्त की दुलर्भ विशेषता यह है कि उनकी फिल्मों में किसी भी पात्र का अभिनय दोयम दर्जे का नहीं होता. 'प्यासा' में गुरुदत्त, वहीदा रहमान, माला सिन्हा और जॉनी वॉकर की बेजोड़ अदाकारी है. वहीदा रहमान तो गुरुदत्त की ही खोज थीं लेकिन फिल्म का जो संदेश था उसे सिर्फ साहिर लुधियानवी के गीतों ने सचिन देव बर्मन की धुनों से संप्रेषित किया. 'प्यासा' के गीत अद्वितीय हो गये. 
उस वक्त साहिर लुधियानवी ने सिर्फ़ फ़िल्म के नायक को ही नहीं, उस युग के करोड़ों भारतीयों की भावनाओं को व्यक्त कर कर दिया था जो आज भी बदस्तूर जारी है!

'प्यासा' की आशातीत सफलता ने शायद गुरुदत्त को दुस्साहसी बना दिया और उनकी अगली और दक्षिण एशिया की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म 'काग़ज के फूल' में वे आत्मकथा में जाते हुए एक ऐसे फिल्म-निर्देशन की कहानी दिखाने का साहस कर बैठते हैं जो प्रेम, परिवार और पेशे तीनों मोर्चों पर असफल रहती है. लेकिन प्रेम, अकेलेपन व उदासी से लरबरेज और उसमें डूब सब कुछ मिटा देने वाले एक फिल्म निर्देशक की एक आत्मकथात्मक कला ने इसे इतिहास के पन्नों में दर्ज कर दिया क्योंकि जिन्दगी के इस पक्ष को दिखाने वाले गुरुदत्त पहले निर्देशक बन गये थे.

यह विषय अपने वक्त से बहुत आगे का है- वह फ्रांस की 'नूवेल बाग' और 'आत्यँय' फिल्मों के नजदीक़ था. यह इतनी निजी और फ़िल्म की दुनिया को उघाड़ने वाली फिल्म थी कि दर्शकों को बेहद असुविधाजनक लगी. अभिनय अच्छा था, लेकिन साहिर के साथ मतभेद हो जाने के बाद एसडी बर्मन, कैफी आज़मी के साथ 'प्यासा' जैसा जादू कर न सके. 'काग़ज के फूल' में गुरुदत्त व्यक्तिगत और पेशेवर दोनों मोर्चों पर मायूस हुए और उन्होंने यह लिखा भी है कि ‘जनता की रुचि पर कभी भरोसा नहीं किया जा सकता’, लेकिन आज वह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सबसे कलात्मक फ़िल्म मानी जाती है.


'साहब, बीवी और गुलाम' के निर्देशन का श्रेय अबरार अलवी को दिया जाता है, ठीक उसी तरह जैसे कि चौदहवीं का चाँद का एम सादिक़ को, लेकिन दोनों फिल्मों में अलवी और सादिक़ के असंदिग्ध योगदान के बावजूद हर फ्रेम पर गुरुदत्त की मुहर लगी साफ दिखती है. और सच तो यह है कि अभिनय, विषय, संगीत, फोटोग्राफी और सांस्कृतिक रचाव-बसाव के मामलों में 'साहब, बीबी और गुलाम' गुरुदत्त की सर्वगुणसम्पन्न फिल्म लगती है. मीना कुमारी का अभिनय देखकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं, रहमान की प्रतिभा को जितना गुरुदत्त पहचानते थे उतना कोई और नहीं, 'चौदहवीं का चाँद' में खुदकुशी से पहले रहमान की जो अदाकारी दिखती है वह गुरुदत्त की पारखी दरियादिली ही थी कि पूरी फिल्म में उन्होंने रहमान के किरदार को खुद पर हावी होने दिया. 

'चौदहवीं का चाँद' बेशक़ एक लोकप्रिय मुस्लिम सोशल फ़िल्म है लेकिन उस हिस्से में भी वह बड़ी फिल्म है. 'मेरे महबूब' उसके आसपास नहीं फटकती, 'साहब, बीबी और गुलाम' अपनी पूर्णता में कालजयी है और बताती है कि एक जटिल, विस्तीर्ण साहित्यिक कृति पर फ़िल्म कैसे बनाई जाती है. 

अफ़सोस यह है कि निर्देशक गुरुदत्त ने अभिनेता गुरुदत्त पर ग्रहण सा लगा दिया. उनमें ग्लैमर नहीं था और उन्हें अपनी फिल्मों से बाहर हमेशा बलराज साहनी और भारत भूषण जैसी भली भूमिकाएँ दी जाती रहीं लेकिन उनके किसी भी किरदार को दोयम दर्जे की अदायगी नहीं कहा जा सकता. दूसरों के लिए अभिनीत उनकी अंतिम चार फिल्में बहूरानी (1963), भरोसा (1963) सांझ और सबेरा(1964) तथा सुहागन (1964) नाकामयाब नहीं रहीं. वे अलीबाबा और चालीस चोर की कहानी पर एक उत्तर-आधुनिक निर्वाह वाली फिल्म बनाना चाहते थे. लेकिन उनकी आत्मा को अनजान हादसों और मायूसियों ने घेर लिया था. उनके असमय और संदिग्द्ध मौत ने गुरुदत्त को निजी मुक्ति तो दे दी लेकिन भारतीय या शायद विश्व-सिनेमा को कई कृतियों से हमेशा के लिए वंचित कर दिया.



जो दुनिया को दिया ..


गुरुदत्त यथार्थवादी कलाकार थे. यथार्थपरक नहीं. जो वैचारिक प्रतिबद्धता गुरुदत्त में थी, वो उस दौर के कई फिल्मकारों में थी लेकिन समय के झंझावतों में कईयों ने अपने चोले बदल दिए पर गुरुदत्त कभी न बदले. जिस व्यवस्था के खिलाफ गुरुदत्त लड़ रहे थे, उसके अपने खतरे थे. गुरुदत ने अपनी फिल्मों में शुरू से आखिर तक सामाजिक सम्बद्धता की छाप छोड़ी. उनकी फ़िल्में सामाजिक रूढियों और मान्यताओं के प्रति बगावती रुख अख्तियार करती हैं, उनकी फ़िल्म दिमाग से नफे-नुकसान का आकलन करते हुए नहीं बल्कि दिल के रस्ते, संवेदनाओं के सागर में कहीं गुम हो जाने में अपनी सपूर्णता ढूढती हैं. बाजारभाव के इस दौर में जिसको सहेजना रोटी-दाल और अपनी सांसो में किसी एक को चुनने के बराबर है.

कई सौ वर्षों की गुलामी झेलने वाले तीसरी दुनिया के एक गरीब मुल्‍क और एक सामंती भाषा में रचे जा रहे सिनेमा की अपनी वस्‍तुगत सच्‍चाइयाँ थीं. जबकि गुरुदत्‍त इस यथार्थ से बहुत आगे थे. विचारों के लिए जीना और वह भी हिन्दी फिल्मों के बाजार में, एक असाध्य पीड़ा को जन्म देता है. जबकि इन सबको स्थापनाएं देने वाला हिन्दी फिल्मों का दर्शक; बिना कोई ख़िताब पाये कलाकार को भुला देने का आदी रहा है. मीडिया की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. मीडिया फिल्मों और फिल्मकारों की ऐसी संगिनी रहा है, जो चाहे-अनचाहे किसी भी फिल्म को, किसी भी अदाकार को लोक और अ-लोक के शिखर-पाताल में जगह दे देती है. शायद इसीलिए ‘कागज के फूल’ के सिन्हा साहब (गुरुदत्त) को उनके स्टूडियो के कर्मचारी भी नहीं पहचान पाए थे.

गुरुदत्‍त अपने वक्‍त से बहुत आगे के कलाकार थे. मुंबईया सिनेमा की जिन सीमाओं के बीच वे अपनी कालजयी कृतियाँ रच रहे थे, वह अपने आप में एक गहरी रचनात्‍मक तड़प को दर्शाती है. वह तड़प, जो जिंदगी के छूटने के साथ ही छूटी. शायद पूरी तरह छूटी भी नहीं, जो अपने पीछे एक तड़प छोड़ गई. वही तड़प, जो आज भी ‘प्‍यासा’ और ‘कागज के फूल’ को देखते हुए हमें अपने भीतर महसूस होती है. एक तड़प, जो सुंदर फूलों की ‘प्‍यास’ में भटक रही है, लेकिन जिसके हिस्‍से आती है, सिर्फ ‘कागज के फूल’... जिसमें कोई मादक सुगंध नहीं बल्कि है.. एक बदसूरत महक जो दिलोदिमाग को दर्द के गहरे सागर के मुहाने तक खिंच ले जाती है.

- अमृत सागर 

(कभी किसी सेमेस्टर के लिए लिखा गया एक असाइनमेंट)

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